क्रिया

क्रिया(Verb) की परिभाषा

जिन शब्दों से किसी काम के करने या होने का ज्ञान हो उसे क्रिया कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिस शब्द से किसी काम का करना या होना समझा जाय, उसे क्रिया कहते है। 
जैसे- पढ़ना, खाना, पीना, जाना इत्यादि।

क्रिया के भेद

प्रयोग की दृष्टि से क्रिया के प्रकार
(1)प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)
(2)यौगिक क्रिया
(3)द्विकर्मक क्रिया(Double Transitive Verb)
(4)संयुक्त क्रिया (Compound Verb)
(5) सहायक क्रिया(Helping Verb)
(6) नामबोधक क्रिया(Nominal Verb)
(7) पूर्वकालिक क्रिया(Absolutive Verb)
(1)प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)-जिन क्रियाओ से इस बात का बोध हो कि कर्ता स्वयं कार्य न कर किसी दूसरे को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, वे प्रेरणार्थक क्रिया कहलाती है। 
जैसे काटना से कटवाना, करना से कराना।
एक अन्य उदाहरण इस प्रकार है- 
मोहन मुझसे किताब लिखाता है।
इस वाक्य में मोहन (कर्ता) स्वयं किताब न लिखकर 'मुझे' दूसरे व्यक्ति को लिखने की प्रेरणा देता है।
प्रेरणार्थक क्रियाओं के दो रूप हैं। जैसे- 'गिरना' से 'गिराना' और 'गिरवाना' । दोनों क्रियाएँ एक के बाद दूसरी प्रेरणा में हैं। याद रखने वाली बात यह है कि अकर्मक क्रिया प्रेरणार्थक होने पर सकर्मक (कर्म लेनेवाली) हो जाती है। जैसे-
राम लजाता है। 
वह राम को लजवाता है।
प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक और अकर्मक दोनों क्रियाओं से बनती हैं। ऐसी क्रियाएँ हर स्थिति में सकर्मक ही रहती हैं। जैसे- मैंने उसे हँसाया; मैंने उससे किताब लिखवायी। पहले में कर्ता अन्य (कर्म) को हँसाता है और दूसरे में कर्ता दूसरे को किताब लिखने को प्रेरित करता है। इस प्रकार हिन्दी में प्रेरणार्थक क्रियाओं के दो रूप चलते हैं। प्रथम में 'ना' का और द्वितीय में 'वाना' का प्रयोग होता है- हँसाना- हँसवाना।
मूलद्वितीय-तृतीय (प्रेरणा)
उठनाउठाना, उठवाना
उड़नाउड़ाना, उड़वाना
चलनाचलाना, चलवाना
देनादिलाना, दिलवाना
जीनाजिलाना, जिलवाना
लिखनालिखाना, लिखवाना
जगनाजगाना, जगवाना
सोनासुलाना, सुलवाना
पीनापिलाना, पिलवाना
देनादिलाना, दिलवाना
(2)यौगिक क्रिया- दो या दो से अधिक धातुअों और दूसरे शब्दों के संयोग से या धातुअों में प्रत्यय लगाने से जो क्रिया बनती है, उसे यौगिक क्रिया कहा जाता है। 
जैसे- चलना-चलाना, हँसना-हँसाना।
(3)द्विकर्मक क्रिया (Double Transitive Verb)- जिस क्रिया के दो कर्म होते है उसे द्विकर्मक क्रिया कहते है। 
कुछ क्रियाएँ एक कर्मवाली और दो कर्मवाली होती है। जैसे- राम ने रोटी खायी। इस वाक्य में कर्म एक ही है-
'रोटी' । किन्तु 'मैं लड़के को वेद पढ़ाता हूँ' इस वाक्य में दो कर्म हैं- 'लड़के को' और 'वेद' ।
(4)संयुक्त क्रिया (Compound Verb)- जो क्रिया दो या दो से अधिक धातुओं के मेल से बनती है, उसे संयुक्त क्रिया कहते हैं।
जैसे- घनश्याम रो चुका, किशोर रोने लगा, वह घर पहुँच गया। 
इन वाक्यों में 'रो चुका', 'रोने लगा' और 'पहुँच गया' संयुक्त क्रियाएँ हैं।
विधि और आज्ञा को छोड़कर सभी क्रियापद दो या अधिक क्रियाओं के योग से बनते हैं, किन्तु संयुक्त क्रियाएँ इनसे भित्र है, क्योंकि जहाँ एक ओर साधारण क्रियापद 'हो', 'रो', 'सो', 'खा' इत्यादि धातुओं से बनते है, वहाँ दूसरी ओर संयुक्त क्रियाएँ 'होना', 'आना', 'जाना', 'रहना', 'रखना', 'उठाना', 'लेना', 'पाना', 'पड़ना', 'डालना', 'सकना', 'चुकना', 'लगना', 'करना', 'भेजना', 'चाहना' इत्यादि क्रियाओं के योग से बनती हैं।
इसके अतिरिक्त, सकर्मक तथा अकर्मक दोनों प्रकार की संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं। जैसे-
अकर्मक क्रिया से- लेट जाना, गिर पड़ना। 
सकर्मक क्रिया से- बेच लेना, काम करना, बुला लेना, मार देना। 
संयुक्त क्रिया की एक विशेषता यह है कि उसकी पहली क्रिया प्रायः प्रधान होती है और दूसरी उसके अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। जैसे- मैं पढ़ सकता हूँ। इसमें 'सकना' क्रिया 'पढ़ना' क्रिया के अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। हिन्दी में संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग अधिक होता है।

संयुक्त क्रिया के भेद

अर्थ के अनुसार संयुक्त क्रिया के ११ मुख्य भेद है-
(i) आरम्भबोधक- जिस संयुक्त क्रिया से क्रिया के आरम्भ होने का बोध होता है, उसे 'आरम्भबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ने लगा, पानी बरसने लगा, राम खेलने लगा।
(ii) समाप्तिबोधक- जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया की पूर्णता, व्यापार की समाप्ति का बोध हो, वह 'समाप्तिबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह खा चुका है; वह पढ़ चुका है। धातु के आगे 'चुकना' जोड़ने से समाप्तिबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
(iii) अवकाशबोधक- जिससे क्रिया को निष्पत्र करने के लिए अवकाश का बोध हो, वह 'अवकाशबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह मुश्किल से सोने पाया; जाने न पाया।
(iv) अनुमतिबोधक- जिससे कार्य करने की अनुमति दिए जाने का बोध हो, वह 'अनुमतिबोधक संयुक्त क्रिया' है। 
जैसे- मुझे जाने दो; मुझे बोलने दो। यह क्रिया 'देना' धातु के योग से बनती है।
(v) नित्यताबोधक- जिससे कार्य की नित्यता, उसके बन्द न होने का भाव प्रकट हो, वह 'नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- हवा चल रही है; पेड़ बढ़ता गया; तोता पढ़ता रहा। मुख्य क्रिया के आगे 'जाना' या 'रहना' जोड़ने से नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया बनती है।
(vi) आवश्यकताबोधक- जिससे कार्य की आवश्यकता या कर्तव्य का बोध हो, वह 'आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- यह काम मुझे करना पड़ता है; तुम्हें यह काम करना चाहिए। साधारण क्रिया के साथ 'पड़ना' 'होना' या 'चाहिए' क्रियाओं को जोड़ने से आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
(vii) निश्र्चयबोधक- जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया के व्यापार की निश्र्चयता का बोध हो, उसे 'निश्र्चयबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं। 
जैसे- वह बीच ही में बोल उठा; उसने कहा- मैं मार बैठूँगा, वह गिर पड़ा; अब दे ही डालो। इस प्रकार की क्रियाओं में पूर्णता और नित्यता का भाव वर्तमान है।
(viii) इच्छाबोधक- इससे क्रिया के करने की इच्छा प्रकट होती है। 
जैसे- वह घर आना चाहता है; मैं खाना चाहता हूँ। क्रिया के साधारण रूप में 'चाहना' क्रिया जोड़ने से इच्छाबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
(ix) अभ्यासबोधक- इससे क्रिया के करने के अभ्यास का बोध होता है। सामान्य भूतकाल की क्रिया में 'करना' क्रिया लगाने से अभ्यासबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
जैसे- यह पढ़ा करता है; तुम लिखा करते हो; मैं खेला करता हूँ।
(x) शक्तिबोधक- इससे कार्य करने की शक्ति का बोध होता है। 
जैसे- मैं चल सकता हूँ, वह बोल सकता है। इसमें 'सकना' क्रिया जोड़ी जाती है।
(xi) पुनरुक्त संयुक्त क्रिया- जब दो समानार्थक अथवा समान ध्वनिवाली क्रियाओं का संयोग होता है, तब उन्हें 'पुनरुक्त संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ा-लिखा करता है; वह यहाँ प्रायः आया-जाया करता है; पड़ोसियों से बराबर मिलते-जुलते रहो।

(5) सहायक क्रिया (Helping Verb)- सहायक क्रियाएँ मुख्य क्रिया के साथ प्रयुक्त होकर अर्थ को स्पष्ट एवं पूर्ण करने में सहायक करती है। जैसे-
(i) मैं घर जाता हूँ। (यहाँ 'जाना' मुख्य क्रिया है और 'हूँ' सहायक क्रिया है)
(ii) वे हँस रहे थे। (यहाँ 'हँसना' मुख्य क्रिया है और 'रहे थे' सहायक क्रिया है)
(6) नामबोधक क्रिया (Nominal Verb)- संज्ञा अथवा विशेषण के साथ क्रिया जोड़ने से जो संयुक्त क्रिया बनती है, उसे 'नामबोधक क्रिया' कहते हैं। 
जैसे-
संज्ञा+क्रिया=नामबोधक क्रिया
लाठी+मारना=लाठी मारना
रक्त+खौलना=रक्त खौलना
विशेषण+क्रिया=नामबोधक क्रिया
दुःखी+होना=दुःखी होना
पीला+पड़ना=पीला पड़ना
द्रष्टव्य- नामबोधक क्रियाएँ संयुक्त क्रियाएँ नहीं हैं। संयुक्त क्रियाएँ दो क्रियाओं के योग से बनती है और नामबोधक क्रियाएँ संज्ञा अथवा विशेषण के मेल से बनती है। दोनों में यही अन्तर है।
(7) पूर्वकालिक क्रिया (Absolutive Verb)- जब कर्ता एक क्रिया समाप्त कर उसी क्षण दूसरी क्रिया में प्रवृत्त होता है तब पहली क्रिया 'पूर्वकालिक' कहलाती है।
जैसे- उसने नहाकर भोजन किया। इसमें 'नहाकर' पूर्वकालिक क्रिया है; क्योंकि इससे 'नहाने' की क्रिया की समाप्ति के साथ ही भोजन करने की क्रिया का बोध होता है।
रचना की दृष्टि से क्रिया के दो भेद है-
(1)सकमर्क क्रिया(Transitive Verb) (2 )अकर्मक क्रिया(Intransitive Verb)
(1)सकमर्क क्रिया :-वाक्य में जिस क्रिया के साथ कर्म भी हो, तो उसे सकमर्क क्रिया कहते है।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है- 'सकर्मक क्रिया' उसे कहते है, जिसका कर्म हो या जिसके साथ कर्म की सम्भावना हो, अर्थात जिस क्रिया के व्यापार का संचालन तो कर्ता से हो, पर जिसका फल या प्रभाव किसी दूसरे व्यक्ति या वस्तु, अर्थात कर्म पर पड़े।
दूसरे शब्दों में-जिस क्रिया का फल कर्म पर पड़े उसे सकमर्क क्रिया कहते है।
जैसे- बकरी घास खाती है, पिताजी अख़बार पढ़ते है।
उपयुक्त वाक्यों में 'खाती है' 'पढ़ते है' सकमर्क क्रियाये है। इनका फल 'घास' और 'अख़बार' पर पड़ रहा है जो कि कर्म है।
कभी-कभी सकर्मक क्रिया का कर्म छिपा रहता है। जैसे- वह गाता है; वह पढ़ता है। यहाँ 'गीत' और 'पुस्तक' जैसे कर्म छिपे हैं।
पहचान- क्रिया के साथ 'क्या' अथवा 'किसको' लगाने पर जो उत्तर आये वही 'कर्म' होता है

सकमर्क क्रिया दो प्रकार की होती है

(i) एककर्मक क्रिया (ii) द्विकर्मक क्रिया
(i) एककमर्क क्रिया :-जिस क्रिया का केवल एक ही कर्म होता है।
जैसे- विजय सेव खाया। (कर्म- सेव)
तुम स्कूल जाते हो। (कर्म- स्कूल )
(ii) द्विकर्मक क्रिया :- जिस सकमर्क क्रिया के दो कर्म होते है, उसे द्विकर्मक क्रिया कहते है।
जैसे- अध्यापक 'बच्चों' को व्याकरण पढ़ा रहे है।
गाय 'बछड़े' को 'दूध' पिलाती है।
(2)अकर्मक क्रिया :-वाक्य में जब क्रिया के साथ कर्म नही होता तो उस क्रिया को अकर्मक क्रिया कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिन क्रियाओं का व्यापार और फल कर्ता पर हो, वे 'अकर्मक' कहलाती हैं।
अकर्मक क्रियाओं का 'कर्म' नहीं होता, क्रिया का व्यापार और फल दूसरे पर न पकड़कर कर्ता पर पड़ता है। 
उदाहरण के लिए -
श्याम सोता है। इसमें 'सोना' क्रिया अकर्मक है। 'श्याम' कर्ता है, 'सोने' की क्रिया उसी के द्वारा पूरी होती है। अतः, सोने का फल भी उसी पर पड़ता है। इसलिए 'सोना' क्रिया अकर्मक है।
सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान
सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान 'क्या', 'किसे' या 'किसको' आदि पश्र करने से होती है। यदि कुछ उत्तर मिले, तो समझना चाहिए कि क्रिया सकर्मक है और यदि न मिले तो अकर्मक होगी।
जैसे-
(i) 'राम फल खाता हैै।' 
प्रश्न करने पर कि राम क्या खाता है, उत्तर मिलेगा फल। अतः 'खाना' क्रिया सकर्मक है।
(ii) 'सीमा रोती है।'
इसमें प्रश्न पूछा जाये कि 'क्या रोती है ?' तो कुछ भी उत्तर नहीं मिला। अतः इस वाक्य में रोना क्रिया अकर्मक है।
उदाहरणार्थ- मारना, पढ़ना, खाना- इन क्रियाओं में 'क्या' 'किसे' लगाकर पश्र किए जाएँ तो इनके उत्तर इस प्रकार होंगे-
पश्र- किसे मारा ?
उत्तर- किशोर को मारा। 
पश्र- क्या खाया ?
उत्तर- खाना खाया। 
पश्र- क्या पढ़ता है। 
उत्तर- किताब पढ़ता है। 
इन सब उदाहरणों में क्रियाएँ सकर्मक है।
कुछ क्रियाएँ अकर्मक और सकर्मक दोनों होती है और प्रसंग अथवा अर्थ के अनुसार इनके भेद का निर्णय किया जाता है। जैसे-
मूलद्वितीय-तृतीय (प्रेरणा)
अकर्मकसकर्मक
उसका सिर खुजलाता है।वह अपना सिर खुजलाता है।
बूँद-बूँद से घड़ा भरता है।मैं घड़ा भरता हूँ।
तुम्हारा जी ललचाता है।ये चीजें तुम्हारा जी ललचाती हैं।
जी घबराता है।विपदा मुझे घबराती है।
वह लजा रही है।वह तुम्हें लजा रही है।